दिलजीत दोसांझ की फिल्म 'पंजाब 95' पर तिरछी नजर... मेरा खजाना - Mera Khazana 3:
लंबे समय से चर्चा में रही दिलजीत दोसांझ की मुख्य भूमिका वाली फिल्म 'पंजाब 95' की स्क्रीनिंग चुनिंदा बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, लेखकों, विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं को प्राइवेट स्क्रीनिंग के तौर पर दिखाई गई। यह फिल्म बिना किसी कट के, अपने मूल रूप में प्रदर्शित की गई। यह वही फिल्म है जिसे सेंसर बोर्ड ने रिलीज की अनुमति नहीं दी और इसमें बड़े पैमाने पर कट लगाने के आदेश जारी किए गए।
फिल्म देखने के बाद स्वाभाविक रूप से मेरे जैसे लोगों के दिमाग में पंजाब के उस डेढ़ दशक के भयावह दौर और संताप भरे दुखद समय की यादें ताजा हो जाती हैं। यह वह समय था जब पंजाब के लोग चक्की के दो पाटों में अनाज के दानों की तरह पिस रहे थे—एक तरफ खालिस्तानी आतंकवाद और दूसरी तरफ सरकारी दमन के बीच।
शमशानघाट से बोलतीं लावारिस लाशें, जसवंत सिंह खालड़ा की भयावह कहानी
'पंजाब 95' की कहानी मानवाधिकारों के लिए बलिदान देने वाले जसवंत सिंह खालड़ा के जीवन और उनकी जद्दोजहद के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में उस समय के डीजीपी के.पी.एस. गिल और तरनतारन के एसएसपी अजीत सिंह संधू को दिखाया गया है, जिन पर आरोप था कि उन्होंने जसवंत सिंह खालड़ा का अपहरण कर लंबे समय तक अमानवीय यातनाएं दीं और उनकी मृत देह को नदी में फेंक दिया। स्वाभाविक रूप से यह फिल्म इन तीनों किरदारों के इर्द-गिर्द ही घूमती है।

रोनी स्क्रूवाला की आरएसवीपी मूवीज द्वारा निर्मित इस फिल्म के निर्देशक हनी त्रेहन ने जसवंत सिंह खालड़ा के समय से संबंधित घटनाओं, खासकर लावारिस लाशों, फर्जी पुलिस मुठभेड़ों और इन मुठभेड़ों में मारे गए नौजवानों व अन्य लोगों को आतंकवादी करार देकर उनकी लाशों को लावारिस घोषित कर श्मशान घाटों में जलाने की प्रक्रिया को काफी वास्तविक ढंग से पेश किया है। साथ ही, जसवंत सिंह खालड़ा द्वारा मानवाधिकार आंदोलन के नेता के रूप में लावारिस लाशों की जानकारी, विवरण और लंबे समय की मेहनत से इकट्ठा किए गए आंकड़ों और साक्ष्यों के इतिहास को भी बखूबी दर्शाया गया है।
सीबीआई और अदालतों की भूमिका पंजाब पुलिस से उलट
फिल्म में 1995 से कुछ समय पहले और बाद के बेअंत सिंह सरकार के दौर में पंजाब पुलिस के शीर्ष अधिकारियों और एसएसपी स्तर के अधिकारियों द्वारा किए गए दमन, मनमानियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन को भी सिनेमाई रूप में प्रस्तुत किया गया है। बेअंत सिंह की हत्या और इसके बाद जसवंत सिंह खालड़ा के अपहरण, यातनाएं देकर हत्या और उनकी मृत देह को नदी में फेंककर गायब करने की कहानी को भी फिल्माया गया है। जहां एक तरफ पंजाब पुलिस द्वारा उस दौर में फैलाए गए सरकारी आतंकवाद को भयावह ढंग से दिखाया गया है, वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार की एजेंसियों, खासकर सीबीआई और इसके तत्कालीन अधिकारियों की भूमिका को पंजाब पुलिस से उलट दिखाया गया है।
सीबीआई के वरिष्ठ अधिकारी के रूप में अर्जन रामपाल की टीम द्वारा पंजाब पुलिस की गैरकानूनी और अमानवीय कार्रवाइयों, खासकर जसवंत सिंह खालड़ा मामले की निष्पक्ष जांच को फिल्म में दर्शाया गया है। इस मामले के साक्ष्यों को इकट्ठा कर अदालतों में पेश करने से लेकर अपहरण और हत्या के दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा दिलाने तक की घटनाओं को सटीक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। हालांकि, यह भी हाईलाइट किया गया है कि जसवंत सिंह खालड़ा के अपहरण और हत्या की जिम्मेदारी से तत्कालीन शीर्ष पुलिस अधिकारी के.पी.एस. गिल (फिल्म में बिट्टा के नाम से) को बचाया गया या मामले से बाहर रखा गया।
फर्जी मुठभेड़ों में सजा और मानवाधिकारों की लड़ाई
कोई भी कारण हो, यह सच्चाई है कि मानवाधिकारों के लिए सक्रिय लोग और खासकर वकील मानते हैं कि आतंकवाद के दौर की फर्जी मुठभेड़ों की जितनी भी सीबीआई Probes अदालतों के आदेश पर हुईं, उनमें से अधिकांश मामलों में दोष सिद्ध हुए और सजाएं भी हुईं, यह सिसलिला आज तक भी जारी हैं। इस प्रक्रिया ने हमारे न्याय प्रणाली और अदालती ढांचे पर लोगों का विश्वास कुछ हद तक बहाल हुआ है की देर तो है लेकिन केवल अंधेर नहीं । हालांकि, इंसाफ की यह राह पीड़ितों के माता-पिता, रिश्तेदारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों के लिए बेहद खतरनाक, कठिन, दुखों और जटिलताओं से भरी रही।
SSP की आत्महत्या का सच
फिल्म में अलग-अलग फर्जी नामों के तहत पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह, हरचरण सिंह बराड़, तत्कालीन डीजीपी के.पी.एस. गिल और एसएसपी अजीत सिंह संधू के साथ-साथ खालड़ा मामले में दोषी पाए गए पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के रूप से दिखाया गया है। बदले हुए माहौल में मुख्यमंत्री के रूप में हरचरण बराड़ के रोल में CM वोहरा द्वारा पुलिस पर कुछ अंकुश लगाने के प्रयास और के.पी.एस. गिल की सेवा विस्तार के विरोध के दृश्य भी शामिल हैं। इसके अलावा, लावारिस लाशों, जसवंत सिंह खालड़ा, जमीनों पर जबरन कब्जे और अन्य मामलों में फंसने के बाद अजीत सिंह संधू (फिल्म में सूरजीत सिंह सग्गू) द्वारा आत्महत्या के दृश्य भी दिखाए गए हैं।
एक पत्रकार के रूप में, उस दौर की कई घटनाओं का चश्मदीद गवाह या जानकार होने के नाते मैं कह सकता हूं कि कुछ स्थानों पर वास्तविक तथ्यों से थोड़ा हटकर प्रस्तुति दी गई है। उदाहरण के लिए, सूरजीत सिंह Saggu (असल में अजीत सिंह संधू) की आत्महत्या के दृश्य में कहा गया कि उनकी लाश से चेहरा पहचाना नहीं जा सका, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था। मई 1997 में डेराबसी के पास रेलवे लाइन पर यह घटना हुई थी, जब मैं अजीत अखबार में था। मैं और हमारे अजीत के फोटोग्राफर टी.एस. बेदी सबसे पहले उस स्थान पर पहुंचे थे। हमने तस्वीरें भी खींची थीं। उनकी पहचान स्पष्ट थी। मुझे आज तक वह दृश्य याद है—रेलवे लाइन के एक तरफ अजीत सिंह संधू की गला कटी लाश पड़ी थी, उनके कलाई पर सुनहरी घड़ी, सोने का कड़ा और पैंट-शर्ट पहने हुए थी।
फिल्म देखकर मुझे यह भी याद आया कि मैंने खालड़ा मामले के चश्मदीद गवाह SPO की चंडीगढ़ में एक गुप्त स्थान पर अजीत अखबार के लिए साक्षात्कार किया था, जब वह छिपकर रह रहा था। स्पेशल पुलिस अफसर वो होते थे जिनको आरज़ी तौर पर फिक्स तनखाह पे सीधे पुलिस में सेवा दे दी जाती थी और उनसे हर किस्म के काम करवाए जाते थे.)कुछ अन्य छोटे-मोटे तथ्यों को फिल्मी कहानी के लिए इधर-उधर किया गया या छोड़ दिया गया।
पुलिस जुल्म को दिखाने के लिए इतने भयावह दृश्य दिखाए गए हैं कि उन्हें देखकर मन खराब हो जाता है। इन दृश्यों को देखकर उदासी और गुस्सा दोनों जागते हैं।

परमजीत कौर खालड़ा ने संभाली पति की विरासत
फिल्म की एक खासियत यह है कि इसमें फर्जी नाम के तहत दिखाई गई जसवंत सिंह खालड़ा की जीवनसंगिनी परमजीत कौर खालड़ा ने जिस साहस और समर्पण के साथ अपने पति के मिशन और विरासत को संभाला, उसका चित्रण बखूबी किया गया है। न केवल हम मीडिया कर्मी, बल्कि समूचा पंजाबी समाज इसका गवाह है।

खालिस्तानी हिंसा बनाम सरकारी आतंक—क्या फिल्म एकतरफा है?
बेशक, पुलिस अधिकारियों के मुंह से उस समय के खालिस्तानी सशस्त्र समूहों, उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियारों, हत्याओं और फैलाए गए हिंसा का जिक्र करवाकर पंजाब पुलिस के अधिकारियों से मानवाधिकार उल्लंघन को जायज ठहराने के दृश्य दिखाए गए हैं। मेकअप, वेशभूषा, आवाज और भूमिका के हिसाब से सभी कलाकारों का अभिनय और निर्देशन प्रशंसनीय है। कहीं भी बनावटीपन नहीं दिखता।
फिर भी, उस दौर के गवाह या उस दुख को झेलने वाले लोग, आतंकवादियों और खालिस्तानी समूहों के शिकार हुए लोग और पीड़ित पक्ष यह सवाल उठा सकते हैं कि यह फिल्म एकतरफा है और इसमें केवल एक पक्ष दिखाया गया है। हालांकि, फिल्म के निर्माता और निर्देशक का मुख्य उद्देश्य जसवंत सिंह खालड़ा के जीवन और उनके काम पर केंद्रित था। पहले इस फिल्म का नाम खालड़ा के नाम पर ही था, लेकिन सेंसर बोर्ड के आपत्ति के बाद इसे 'पंजाब 95' कर दिया गया। फिर भी, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पंजाब के उस दुखद दौर में जहां एक तरफ सरकारी तंत्र यानी पुलिस जुल्म का शिकार लोग हुए, जिनमें सिख नौजवानों की संख्या अधिक थी, वहीं दूसरी तरफ खालिस्तानी समूहों की हिंसा और आतंक का शिकार भी हजारों लोग हुए, और उनके या उनके मानवाधिकारों का जिक्र कहीं ठीक से नहीं हुआ।
मैं और हमारा परिवार भी दोनों पक्षों की हिंसा का शिकार हुए
इसके अलावा, एक तीसरा वर्ग भी था, जो पंजाब और आसपास के राज्यों के लोगों का था, जो दोनों पक्षों—खालिस्तानी गुटों और पंजाब पुलिस—के जुल्म, दमन और हिंसा का शिकार हुआ।
मैं और मेरा परिवार इस श्रेणी में आते हैं, जो एक तरफ खालिस्तानी समूहों के कहर और दूसरी तरफ तरनतारन के उसी एसएसपी की पुलिस के जुल्म का शिकार हुए।
पहली घटना खालिस्तान के नाम पर हिंसा करने वाले आतंकवादियों की मार-काट से संबंधित है। 1988 में हरियाणा के शाहबाद नगर में आतंकवादियों द्वारा तत्कालीन सीपीआई विधायक डॉ. हरनाम सिंह के घर पर एके-47 राइफलों से किए गए हमले में परिवार के तीन सदस्य मारे गए और डॉ. हरनाम सिंह व उनकी पत्नी घायल हो गए। यह परिवार हमारा नजदीकी रिश्तेदार है। उस रात 9 बजे के करीब हुए इस हमले में मारी गई गुरप्रीत कौर मेरी सगी साली थी, उनका पति एडवोकेट खुशदेव सिंह मेरा सगा सांडू था और तीसरा मृतक डॉ. हरनाम सिंह की पत्नी माता जसवंत कौर का भतीजा था। हमलावर इतने बेरहम थे कि अपने पति को बचाने के लिए आगे आई गुरप्रीत कौर पर एके-47 की 24 गोलियां दागी गईं।
इस हमले से तीन साल पहले ही हमने उनका विवाह किया था। उनकी दो साल की बेटी कमरे में होने के कारण बच गई। गोलियों से घायल डॉ. हरनाम सिंह और उनकी पत्नी ने बाद में उस बच्ची को पाला और पढ़ाया-लिखाया। इस हमले का मुख्य दोषी दया सिंह नाम का आतंकवादी था, जिसे उम्रकैद की सजा हुई। एक हमलावर मौके पर ही मारा गया था, क्योंकि खुशदेव और परिवार ने हमलावरों का डटकर मुकाबला किया था। शायद बाकी दो हमलावर पुलिस के हाथों मारे गए। बहादुरी दिखाने के लिए तीनों मृतकों को शहीद का दर्जा दिया गया और इस परिवार को पांच शौर्य चक्र प्रदान किए गए, जो आज तक एक रिकॉर्ड है। अब डॉ. हरनाम सिंह और उनकी पत्नी का देहांत हो चुका है।

Honey Trehan-Director
दूसरी घटना तरनतारन और अमृतसर से संबंधित है, जहां मेरी पत्नी के सगे ताऊ के पोते, 21 साल के एक नौजवान को तरनतारन पुलिस ने Jandiala गGuru से उठा लिया। उस पर आरोप लगाया गया कि वह अपने शेलर पर खालिस्तानी आतंकवादियों को पनाह देता था या उन्हें रोटी-पानी खिलाता था। पुलिस हिरासत में हमारे रिश्तेदार उससे मिले और बातचीत की। रिहाई के बदले पुलिस अधिकारियों ने सौदेबाजी की पेशकश भी की, लेकिन इसी दौरान कहीं आतंकवादियों ने कुछ लोगों को मार दिया, और इसका जवाब दिखाने के लिए पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में हमारे उस रिश्तेदार नौजवान को मार डालालेकिन उसकी लाश तक माता-पिता को नहीं दी गई।
इसी तरह की एक और घटना फिरोजपुर जिले के गांव कुहाला की है, जहां मेरा सगा चाचा रहता था। उसे भी खालिस्तानी गोलियां मार गए थे, लेकिन वह बच गया था।
मैं और मेरा परिवार चंडीगढ़ में रहते हुए भी दोनों पक्षों—पंजाब पुलिस और खालिस्तानी समूहों—के दमन और आतंक का शिकार रहे। कई बार पुलिस अधिकारी धमकियां देते रहे, पुलिस के हाथों मारे जाने का खतरा बना रहता था। 1990-91 के दौर में एक समय ऐसा भी आया जब प्रमुख खालिस्तानी गुटों ने मुझे जान से मारने की सीधी और वास्तविक धमकी दी थी , जिसकी पुष्टि उसी आतंकवादी ने की जो हमें उनके प्रेस नोट देने आता था। जान के खतरे को भांपकर मुझे अपने परिवार के साथ लगभग एक महीने तक पंजाब से बाहर छिपकर रहना पड़ा। ऐसी और भी कई कहानियां हैं। 'पंजाब 95' फिल्म तो पता नहीं कभी रिलीज़ हो गई या नहीं पर उस दौर की कौड़ी-मीठी यादों का खज़ाना ज़रूर सहमने आ गया।
June 16 , 2025
-
बलजीत बल्ली, Editor-in Chief, Babushahi Network , Tirchhi Nazar Media
tirshinazar@gmail.com
+91-9915177722
Disclaimer : The opinions expressed within this article are the personal opinions of the writer/author. The facts and opinions appearing in the article do not reflect the views of Babushahi.com or Tirchhi Nazar Media. Babushahi.com or Tirchhi Nazar Media does not assume any responsibility or liability for the same.