Babushahi Special : पसीने से सींची ज़िंदगी, फिर भी अधूरी रोटी : खेतों में काम करती पंजाब की महिलाएं, जिनकी कहानी न अखबार में छपती न सरकार तक पहुंचती
अशोक वर्मा
पंजाब के गांवों की वो औरतें जो हर सुबह सूरज से पहले उठती हैं, दिनभर खेतों में मिट्टी से लड़ती हैं और फिर भी थकती नहीं — आज भी उसी जिंदगी को ढो रही हैं, जो न तो खबरों में है और न ही सरकार की योजनाओं में।
खबरों और राजनीति से दूर, एक अलग ही जंग चल रही
ग्रामीण इलाकों में खेत मजदूरी करने वाली महिलाएं महंगाई और आर्थिक तंगी से हर रोज़ जूझ रही हैं। हालात इतने खराब हैं कि कई परिवारों की आमदनी 100 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा नहीं, जबकि खर्च 125 रुपये तक पहुंच चुका है। इस असंतुलन ने कर्ज के बोझ को बढ़ा दिया है, जिसकी वजह से आत्महत्या जैसे खौफनाक कदम उठाने की घटनाएं सामने आ रही हैं।
जनगणना कहती है, पंजाब में 15.80 लाख खेत मजदूर — लेकिन हक में कुछ नहीं
2011 की जनगणना के मुताबिक पंजाब में खेत मजदूरों की संख्या 15,80,455 है। इनमें 14,74,732 मजदूर ग्रामीण इलाकों से हैं, जबकि 1,13,723 मजदूर शहरी क्षेत्रों में रहकर भी खेती से जुड़े काम करते हैं। इनमें एक बड़ी संख्या महिलाओं की है, जो राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) के तहत काम करती हैं, फिर भी उनके जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।

गुरदेव कौर: “काम मिल भी जाए तो रोटी नहीं मिलती”
गुरदेव कौर, एक खेत मजदूर महिला हैं, जो नरेगा में रजिस्टर हैं। वो बताती हैं, “जब नरेगा में काम नहीं मिलता, तब घरों में झाड़ू-पोंछा करने निकल पड़ती हूं।” उन्होंने बताया कि नेता सिर्फ चुनाव के समय ही आकर हमसे वादे करते हैं, फिर कोई हमारी सुध नहीं लेता।
जसवंत कौर: “बेटी हूं, बेटा भी बन गई हूं”
जसवंत कौर पिछले 10 सालों से लगातार खेतों में मेहनत कर रही हैं। उनके पिता बकरियां चराते हैं और बेटा खेतों में दिहाड़ी करता है। “महंगाई ने जीना मुश्किल कर दिया है, मगर काम छोड़ने का हक भी नहीं है,” वो कहती हैं।
10वीं के बाद किताबें छोड़ीं, अब खेत ही दुनिया है
संगरूर जिले की एक लड़की ने बताया कि उसने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी और पिछले पांच सालों से मजदूरी कर रही है। उसकी मां भी खेतों और घरों में झाड़ू-पोंछा करके घर चलाती हैं। “कई बार घर में आटा तक नहीं होता,” वह बताती है।
एक और युवती जो सातवीं कक्षा में पढ़ती थी, हालातों के चलते पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अब वह धान की रोपाई में जुटी हुई है। शर्म और बेबसी ने उसका नाम बताना भी मना कर दिया।
“दलित और गरीब एजेंडे में नहीं”: खेत मजदूर यूनियन
पंजाब खेत मजदूर यूनियन के महासचिव लछमन सिंह सेववाला ने कहा, “सरकारें गरीबों को सिर्फ वोट बैंक समझती हैं। दलित और खेत मजदूर कभी नीतियों का हिस्सा नहीं बनते।” उन्होंने ये भी कहा कि हजारों मजदूर परिवार कर्ज, भुखमरी और बेरोज़गारी के मुहाने पर खड़े हैं — लेकिन सियासत चुप है।
निष्कर्ष: पसीना बहता रहा, हालात नहीं बदले
इन महिलाओं की कहानियां सिर्फ आंकड़े नहीं, जिंदा सच्चाइयां हैं — जिनमें हर दिन एक नई चुनौती है। मेहनत के बावजूद न तो ज़िंदगी आसान हो रही है, न ही आने वाला कल रोशन दिखता है। ये सिर्फ मजदूर नहीं, जिंदा मिसाल हैं, जिनकी लड़ाई को आवाज़ मिलनी अभी बाकी है।
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