BNS लागू हुए एक वर्ष बाद भी बलात्कार से संबंधित धाराओं में भ्रम कायम — एडवोकेट हेमंत कुमार ने उठाई गड़बड़ी की आवाज
बाबूशाही ब्यूरो
चंडीगढ़, 1 जुलाई 2025:
1 जुलाई 2024 को लागू हुए भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 को आज एक वर्ष पूरा हो चुका है, लेकिन बलात्कार और यौन अपराधों से संबंधित धाराओं में भाषा और दंड प्रावधानों को लेकर अब भी गंभीर असंगतियां बनी हुई हैं। इस संबंध में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के वकील व कानूनी विश्लेषक हेमंत कुमार ने चिंता जाहिर करते हुए सरकार से सुधार की मांग की है।
एडवोकेट हेमंत का कहना है कि BNS की धारा 64(1) (जो IPC की पूर्व धारा 376(1) का स्थान लेती है) में "दोनों में से किसी भांति के कठोर कारावास" शब्दों का प्रयोग किया गया है, जबकि "कठोर कारावास" स्वयं में एक निश्चित प्रकृति का दंड है। BNS की धारा 4 स्पष्ट करती है कि "दोनों में से किसी भांति का कारावास" का मतलब साधारण या कठोर दोनों में से हो सकता है, लेकिन जब विशेष रूप से "कठोर" शब्द प्रयोग हो चुका है, तो "दोनों में से किसी भांति का" कहना विरोधाभासी हो जाता है।
इसी तरह, BNS की धारा 68, जो प्राधिकार में किसी व्यक्ति द्वारा मैथुन करने संबंधी है (पूर्ववर्ती IPC की धारा 376C), में भी यही भाषा दोष दोहराया गया है।
हेमंत के अनुसार, इस गड़बड़ी से यह भ्रम पैदा हो सकता है कि सजा में कठोरता को लेकर अनिश्चितता है, जबकि सजा के प्रावधान स्पष्ट, सुसंगत और बिना दोहराव के होने चाहिए।
उन्होंने यह भी बताया कि BNSSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता), 2023 की प्रथम अनुसूची में इन धाराओं के दंड का उल्लेख अलग तरीके से किया गया है — जिससे कानूनी प्रक्रिया और व्याख्या में और असमंजस उत्पन्न हो रहा है।
एडवोकेट हेमंत ने यह विसंगति पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, और कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को पत्र लिखकर उजागर की थी, लेकिन आज तक उस पर कोई आवश्यक संशोधन नहीं किया गया।
हेमंत ने मांग की है कि संसद के माध्यम से BNS संशोधन विधेयक लाकर इन प्रावधानों को स्पष्ट और युक्तिसंगत बनाया जाए, ताकि न्यायिक प्रक्रिया में कोई दुविधा न रहे और पीड़ितों को समय पर न्याय मिल सके।
ऐसे समय में जब भारत में महिलाओं की सुरक्षा और यौन अपराधों की रोकथाम को लेकर नई संवेदनशीलता देखी जा रही है, कानून में इस प्रकार की अस्पष्टता न केवल न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करती है बल्कि न्याय की मूल भावना को भी क्षति पहुंचा सकती है। सरकार से अपेक्षा है कि वह जल्द इस कानूनी तकनीकी दोष को दूर करेगी।
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